Saturday, 8 August 2015

ज्ञान ही पवित्र करने वाला है

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। 
तत  स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति । । गीता  4/38 

अर्थ : ज्ञान के समान पवित्र करने वाला इस संसार में निःसंदेह कुछ भी नहीं है। दीर्घ काल तक योगसिद्धि में लगा योगी उस ज्ञान को स्वयं ही अपने आत्मा में पा लेता है।

व्याख्या : आत्म ज्ञान संसार सागर से पार उतारने का श्रेष्ठ मार्ग है। लेकिन यह ज्ञान प्राप्त करना कोई सरल कार्य नहीं है।  इसके लिए एक लम्बे अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता होती है । क्योंकि उस परमात्मा को पाना है जिसके पाने के बाद कुछ और पाने की ज़रूरत ही नहीं रह जाती। उस प्रभु को पा लेने के बाद योगी माया की तरफ न जाकर प्रभु ध्यान में ही लगा रहता है, यही योग है । योग का अर्थ होता है अपने इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अहंकार को आत्मभाव से योग करा देना । फिर सब एक ही हो जाता है और योगी अपनी आत्मा का अनुभव करने लगता है फिर दीर्घकाल तक योग के अभ्यास करने से ज्ञान का प्रकाश होने लगता है, चित्त में इकठ्ठा संस्कार ज्ञान की अग्नि से जलने लगते हैं, जैसे ही संस्कारों का नाश होता है, वैसे ही योगी को प्रकृति और आत्मा का भेद पता लगने लगता है, परम चेतना का अनुभव होने लगता है, यही योग सिद्धि कहलाती है । इस अवस्था तक पहुँचने के लिए योगी कई सालों तक पूरी श्रद्धा भाव से तपस्या में लगे रहते हैं, लेकिन कई बार गुरु की कृपा से यह कार्य अति शीघ्र भी हो जाता है।    

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