छत्रपति शिवाजी ने अपने पराक्रम से अनेक युद्धों में विजय पाई। इससे उनके मन में थोड़ा अभिमान आ गया। उन्हें लगता था कि उनके जैसा वीर धरती पर और कोई नहीं है। कई बार तो उनका यह घमंड औरों के सामने भी झलक पड़ता। एक दिन शिवाजी के महल में उनके गुरु समर्थ रामदास पधारे। शिवाजी वैसे तो अपने गुरु का बहुत आदर करते थे, लेकिन उनके सामने भी उनका अभिमान व्यक्त हो ही गया। उन्होंन कहा, 'गुरुजी अब मैं लाखों लोगों का रक्षक और पालक हूं। मुझे उनके सुख-दुख और भोजन-वस्त्र आदि की हर समय चिंता करनी पड़ती है।'
रामदास समझ गए कि उनके शिष्य
के मन में राजा होने
का अहंकार हो गया है। इसे तोड़ने
के लिए उन्होंने एक तरकीब सोची।
शाम को शिवाजी
के साथ भ्रमण
करते हुए रामदास
ने अचानक उन्हें
एक बड़ा पत्थर
दिखाते हुए कहा,
'शिवा, जरा इस पत्थर को तोड़कर तो देखो।' शिवाजी
ने गुरु की आज्ञा का पालन करते
हुए तत्काल वह पत्थर तोड़
डाला। किंतु यह क्या, पत्थर
के बीच से एक जीवित
चींटी एक दाना
मुंह में दबाए
बैठी दिखी।
यह देखकर
शिवाजी चकित रह गए। फिर समर्थ रामदास
ने पूछा, 'पत्थर
के बीच बैठी
इस चींटी को कौन हवा-पानी दे रहा है?
इसका पालक कौन है? कहीं
इसके पालन की जिम्मेदारी भी तुम्हारे कंधों
पर तो नहीं
आ पड़ी है शिवा?' शिवाजी
गुरु की बात का मर्म
समझकर लज्जित हो गए। गुरु
ने उन्हें समझाया, 'पालक
तो सबका परम पिता परमेश्वर है। हम-तुम तो माध्यम
भर हैं। उस पर विश्वास रखकर कार्य करो।
सफलता अवश्य मिलेगी।' शिवाजी
गुरु का संकेत
तुरंत समझ गए।
No comments:
Post a Comment